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Showing posts from September, 2019
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*!!नवरात्रा!!* ~दोहा छंद~ 🌹🔥🔥🔥👏🏻🔥🔥🔥🌹 हे! महिषासुर मर्दिनी, शूलधारिणी मात। महातपा सुरसुंदरी, नाम बड़े विख्यात।। मात भवानी अम्बिके, दुर्गा रूप अनेक। वन्दन माँ तेरा करूँ, चरणों माथा टेक।। शेरावाली आज तो, आना मेरे द्वार। शीश हाथ रख दीजिए, मेरी यही पुकार।। आदि भवानी आप हो, इस जग की करतार। हम सेवक भोले सभी, करिये नौका पार।। आओ माँ विनती करें, सजा आज दरबार। दर्शन दो माँ चंडिका, सबके कष्ट निवार।। नौ रातों के रूप को, करता कोटि प्रणाम। जीवन परहित में लगे, रहे यही बस काम।। हर बेटी दुर्गा समा, जग में बने महान। रहे सुरक्षित हर जगह, इतना दो वरदान।। मैं खोटा किंकर सदा, आप सुधारो काज। कहे 'सुमा' जग में रखो, माता मेरी लाज।। 🌹🔥🔥🔥👏🏻🔥🔥🔥🌹 *✍प्रजापति कैलाश 'सुमा'* ढिगारिया कपूर, मेहन्दीपुर बालाजी, दौसा, राजस्थान।

दुर्गा वंदना

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सादर नमन 👏🏻🌹*   नवरात्रा *!!* रोला छंद!! दुर्गा वंदना *************************** सुनिये दुर्गा मात,       कृपा मुझ पर भी करिये। बड़े प्यार से हाथ,       सदा मेरे सिर धरिये।। कहे 'सुमा' कर जोड़,       चरण में शीश झुकाऊँ। आदि भवानी मात,        प्रथम मैं आप मनाऊँ।। 👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻 माँ तेरे नौ रूप,        बड़े सुंदर मन भावें। आना अम्बे आज,        खुशी से भजन सुनावें।। कहे 'सुमा' नादान,        करो मत अब तो देरी। माता झोली आज,        भरो खुशियों से मेरी।। *************************** रचनाकार प्रजापति कैलाश 'सुमा' ढिगारिया कपूर मेंहंदीपुर बालाजी, दौसा, राजस्थान।
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*आदत* . ..... हम फूल है "सपना"     अपनी आदत है ऐसी । गम देने वाले को भी    तोहफा खुशी का देते है ।। ...... *अनिता मंदिलवार "सपना"*
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विधान- *मत्तगयंद सवैया* भगण ×7+2गुरु, 12-11 वर्ण पर यति चार चरण समतुकान्त। *मतगयंद सवैया* कंकर-कंकर है शिव शंकर, शंकर देव बनें वह सारे। नर्मद से निकले जब पत्थर, पूजन के अधिकार हमारे॥ भाव बिना भगवान कहाँ यह, सत्य कहूँ सब तथ्य विचारे। साफ रखो हिय प्रेम बढ़े फिर, ये सुख सागर नाथ सहारे॥  *संजय कौशिक "विज्ञात"*
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कुण्डलिया आये शंकर साधु बन, नंदगाँव इस बार। रूप भयंकर धार के, कहते अलख पुकार कहते अलख पुकार, करूँ ललना के दर्शन। मात किया इनकार, चले कर चुटकी स्पर्शन कह कौशिक कविराय, तभी कान्हा चिल्लाये। दुख पा तज हठ मात, किये दर्शन फिर आये संजय कौशिक 'विज्ञात'
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*मदिरा सवैया* मदिरा सवैया में 7 भगण (ऽ।।) + गुरु से यह छन्द बनता है, 10, 12 वर्णों पर यति होती है। 4 चरण समपाद रहेंगे रूप शशांक कलंक दिखा, पर शीतल तो वह नित्य दिखा। और प्रभा बिखरी जग में, इस कारण ही यह पक्ष लिखा॥ खूब कला बढ़ती रहती, तब जीत गई फिर चंद्र शिखा। आँचल में सिमटी उसके, तब विस्मित देख रही परिखा॥ संजय कौशिक 'विज्ञात'
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*मदिरा सवैया* मदिरा सवैया में 7 भगण (ऽ।।) + गुरु से यह छन्द बनता है, 10, 12 वर्णों पर यति होती है। 4 चरण समपाद रहेंगे रूप शशांक कलंक दिखा, पर शीतल तो वह नित्य दिखा। और प्रभा बिखरी जग में, इस कारण ही यह पक्ष लिखा॥ खूब कला बढ़ती रहती, तब जीत गई फिर चंद्र शिखा। आँचल में सिमटी उसके, तब विस्मित देख रही परिखा॥ संजय कौशिक 'विज्ञात'

रिश्ते

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रिश्ते रिश्ते होते हैं अनमोल, समझो सभी इसका मोल ! कुछ बोलने से पहले, शब्द को तुला लेकर तोल !! अनिता मंदिलवार सपना 

गीत

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**हे चंदा मामा ! फिर आयेंगे* *चंद्रयान पर बैठ हम आयेंगे** सफेद उज्जवल चाँदनी लगे आसमान की मोती नन्हा बालक देखता तुझे उसे पता है कल फिर आयेंगे *हे चंदा मामा ! फिर आयेंगे* *चंद्रयान पर बैठ हम आयेंगे** सफेद उज्जवल चाँदनी लगे आसमान की मोती नन्हा बालक देखता तुझे उसे पता है कल फिर आयेंगे *हे चंदा मामा ! फिर आयेंगे* *चंद्रयान पर बैठ हम आयेंगे** प्यारे प्यारे चंदा मामा तेरी परछाई दिखे पानी में दुआ मेरी है चमकता रहे तू काली बदली भी घिर छायेंगे *हे चंदा मामा ! फिर आयेंगे* *चंद्रयान पर बैठ हम आयेंगे** रात का घनघोर साया आकाश में चाँद जगमगाया प्यारी छवि तेरी न्यारी छाया गोल चकोर चंदा गीत गायेंगे *हे चंदा मामा ! फिर आयेंगे* *चंद्रयान पर बैठ हम आयेंगे** अनुसंधान हुआ है बड़ा देखो चन्द्रमा पर खड़ा विक्रम का है चमत्कार उन्नति के शिखर पर चढ़ पायेंगे *हे चंदा मामा ! फिर आयेंगे* *चंद्रयान पर बैठ हम आयेंगे** ये रच गया इतिहास अब करो न परिहास नया है ये धवल प्रयास चाँद पर भी परचम लहरायेंगे *हे चंदा मामा ! फिर आयेंगे* *चंद्रयान पर बैठ हम आयेंगे** दुनिया में हम
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शजर-ए-तन्हा से एक गज़ल तूफान से डर क्या है निकलिए तो घरों से कुछ तुन्द हवाओं के तकाजे हैं परों से किस बात का खदशा इन्हें किस बात का डर है क्यों लोग निकलते ही नहीं आज घरों से हर आईने में टूटे हुए चेहरे मिलेंगे उम्मीद नहीं कुछ भी हमें शीशागरो से वैसे तो पहाड़ों की बुलंदी पे है बस्ती परवाज तो कर काम तो ले अपने परों से कितने ही कदम आयेंगे और साथ चलेंगे इक  बार बस इक बार निकलिए तो घरों से हिम्मत नयी मिल जाती है उस वक़्त सभी को शैली जो गुजरने ही लगे पानी सरों से     आशा शैली
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★★★ *हिन्दी* ★★★ न भाषा कह अपमान करो, ये शब्दों की जननी है हिन्दी है माथे की बिन्दी, ये मन को पावन करनी है !! अ से ये अज्ञान मिटाकर, ज्ञ से ज्ञानी करती है हिन्दी है ये वीर प्रतापी, नही किसी से डरती है !! आँखे इसकी अलंकार है, गण है इसकी नासिका दोहे इसकी चार भुजाएँ, इस पर जोर चला किसका !! गाल गुलाबी बना सोरठा, चौपाई से कान बने जिव्हा से है सब रस टपके, गीतों से है शान बने !! देख गीतिका गले में बैठी, कुण्डलियाँ मुख बोली है अक्षर का सबको दूध पिलाया, तब जाकर हिन्दी डोली है !! सरसी जिसका पेट बना है, मनहरण हृदय धड़कता है हिन्दी के इस सागर को कोई पार नही कर सकता है !! रोम रोम है लावणीयाँ और पैरों में हर गीत रहे ये हिन्दी है सबसे कहती हम सब इसके मीत रहे !! देवनागरी नमन है करती शीश *नरेन* झुकाता है हिन्दी के आशीष को पाने हर कोई दौड़ा आता है !! :::::::----- *हिन्दी दिवस की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं* !! ***** *जय हिन्दी* ****** :::::::---- नरेन्द्र डग्गा " *नरेन* " बगड़ी नगर , पाली , ( राज.) 84268-93668 🙏🙏🙏🌹🌹🙏🙏🙏
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~~~~~~~~~~~~~~~बाबूलालशर्मा  पत्र~विधा     .             🐚 *सौतन* 🐚 मेरे प्रिय सखे रचनाधर्मी, .                अशेष स्नेहाशीष🙌🙌🙌 आज मै अपनी पीर कहानी पत्र द्वारा तुम्हें बता रही हूँ। क्योंकि राज सभा में द्रौपदी से भी बदतर स्थिति है मेरी वर्तमान में। अब तो बस श्रीकृष्ण की तरह तुम्हारा ही भरोसा शेष है। इसी आशा और विश्वास से पत्र लिख रही हूँ।ध्यान देना सखे। मैं हिन्दी (भाषा) हूँ। माँ संस्कृत(भाषा) का मुझे अपार स्नेह व दुलार मिला है। इतना कि दुलार करते करते माँ अब जरावस्था में पहुँच गई । मै स्वतंत्र भारत की राष्ट्र भाषा बन गई हूँ। पर यह इतर बिन्दु है कि अभी तक शासन की ही दोगली नीति के कारण मै वह सम्मान प्राप्त नहीं कर पा रही जिसकी मैं स्वयं अधिकारिणी हूँ। हालांकि देश की जनता मुझे राजरानी राजमाता सम मानती है पर सरकार के प्रतिनिधि अभी तक सरकारी कार्यालय, कोर्ट कचहरी संसद,विधान सभाओं में अनावश्क रूप से मेरी उपेक्षा करते रहते है। यहाँ तक कि कुटिल स्वार्थी नेता भाषायी विवाद तथा , झगड़े भड़काने से भी नहीं चूकते। खैर मैं राष्ट्र भाषा बनी,मेरी लिपि देवनागरी है। मैं स्वयं संसार की श्

क्या है हिन्दी का भविष्य?

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*क्या है हिन्दी का भविष्य* ? =================== आलेख- *अनिता मंदिलवार सपना*       हिंदी आज एक ऐसी भाषा है जो दुनिया में इतने बड़े स्तर पर बोली व समझी जाती है । मीडिया ने हिंदी के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। दुनियाभर में आज भारतीय फिल्में व टेलीविजन कार्यक्रम देखे जाते हैं। इससे भी दुनिया में हिंदी का प्रचार-प्रसार हुआ है। सोशल मीडिया, इंटरनेट व मोबाइल के कारण आज युवा पीढ़ी इस भाषा का सबसे अधिक प्रयोग कर रही है । हिंदी आज देशभर में आम बोलचाल की भाषा है। आज अधिकतर लोग हिंदी का प्रयोग कर रहे हैं। आज यह भाषा कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक देश को जोड़ने वाली भाषा है। हिंदी के विस्तार में मीडिया की अहम भूमिका है। हिंदी भाषा दुनियाभर में समझी बोली जाती है। मीडिया ने हिंदी के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। दुनियाभर में भारतीय फिल्में टेलीविजन कार्यक्रम देखे जाते हैं। इससे भी दुनिया में हिंदी का प्रचार-प्रसार हुआ है। सोशल मीडिया, इंटरनेट मोबाइल के कारण युवा पीढ़ी इस भाषा का सबसे अधिक प्रयोग कर रही है। यह इस भाषा की ताकत को बताता है। भाषा लोगों को जोड़ने का काम करती है और

मुकतक

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मुक्तक : मेरा ये शून्य सा परिचय मैं इसका मान रखता हूँ। नहीं कुछ कम अधिक इससे ये औसत शान रखता हूँ। समझ क्यों शून्य की कीमत पृथक मुझसे नहीं दिखती। अगर तू साथ दे मेरा अलग पहचान रखता हूँ। संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत

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नवगीत आ बैठे उस पगडण्डी पर जिससे जीवन शुरू हुआ था स्मृति अंतः पटल खड़ी थी जब आवरणों का शोर हुआ था। मन व्याकुलता के घेरे में, हृदय त्रास का जोर हुआ था। गिरा चुका था पंख सभी वो शोषित नृप सा मोर हुआ था लांघ न पाया जो मर्यादा बनता ये मन मेरू हुआ था आ बैठे उस पगडण्डी पर जिससे जीवन शुरू हुआ था वह सूर्य सप्त अश्व सुसज्जित बढ़े प्रतिज्ञा बद्ध निरन्तर ऊर्जा लेकर जब हम चलते शेष रहा मध्य बड़ा अंतर सहनशील सहिष्णु तम पाचक शांत स्वभाव क्रोध का सन्तर नयन क्रोध रक्तिम आभा से दुल्हन के तन गेरू हुआ था आ बैठे उस पगडण्डी पर जिससे जीवन शुरू हुआ था नीति ध्वस्त आडम्बर कलुषित कुंदन शोभा मंद पड़ी थी। लाल मिला फिर रेत भाव में द्वार जौहरी पंक्ति खड़ी थी। अंतः विचलित हो ही जाता उससे भी ये नीच घड़ी थी। शुद्ध अशुद्ध खरा या खोटा सच को देख पखेरू हुआ था आ बैठे उस पगडण्डी पर जिससे जीवन शुरू हुआ था आवश्यकता मातपिता से एक समय पूरी होती थी बाल पराश्रित जीवन सबका संचय से दूरी होती थी पर गुल्लक कच्ची मिट्टी की फोड़ें मजबूरी होती थी पाप स्वप्न ये देख वृद्ध के कभी मोती बखेरू हुआ था
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बचपन याद दिलाता एक गीत बिम्ब पुत्र प्रतिबिम्ब पौत्र हैं, जहाँ बुढापा रीत गया। उत्तम और श्रेष्ठ था बचपन, अपना था जो बीत गया॥ खो-खो कँचें रस्सी कूदो, और पुराना खेल गया। गिल्ली डंडा, चोर सिपाही, गिट्टे का वो मेल गया। कहाँ बैल हैं घुँघरू उनके, रहटों का संगीत गया। उत्तम और श्रेष्ठ था बचपन, अपना था जो बीत गया॥ नीचे घर ऊंची मर्यादा, गाँव गाँव में मिलती थी। सिर पे पल्लू हया आँख में, सुंदरता तब खिलती थी। देख चलन आधुनिक काल के, मन क्यों हो भयभीत गया। उत्तम और श्रेष्ठ था बचपन, अपना था जो बीत गया॥ बागों के वो ताज़ा फल जो, चोरी चुपके खाते थे। माली ले उल्हाना घर तक, पीछे पीछे आते थे। झूल झूलते थे सावन में, आधा रह वो गीत गया। उत्तम और श्रेष्ठ था बचपन, अपना था जो बीत गया॥ केवल कागे स्वर आलापें, कोयल का स्वर भूल गए। मित्र निभाते जहाँ मित्रता, अब तो वो घर भूल गए॥ धरा धारती हरित वसन जब, सरसों बूटी चीत गया। उत्तम और श्रेष्ठ था बचपन, अपना था जो बीत गया॥ संजय कौशिक 'विज्ञात'

शिक्षक

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शिक्षक ==////==== ज्ञान का भान कराते हैं वो सबका मान बढ़ाते हैं तमस से उजास की ओर जो ले जाते, शिक्षक कहलाते हैं जीवन पथ पर सही राह दिखाते हैं मुश्किल में हौसला बढ़ाते हैं जिनकी महिमा अनन्त हैं वही मार्गदर्शक शिक्षक कहलाते हैं कर्म को ही पूजा मान लेते हैं ईश्वर से स्थान ऊँचा पाते हैं बंजर धरती पर भी जो फूल खिलाते हैं वही शिक्षक जग में सम्मान पाते हैं हर परिस्थिति में खुश रहकर सिखाते हैं मानवता का पाठ हमें पढ़ाते हैं माता देती नवजीवन पिता करते रक्षा चुनौतियों से लड़ना शिक्षक सिखाते हैं विद्या देकर ज्ञानवान बनाते हैं पढ़ाकर लिखाकर हमारी ज्ञान बढ़ाते हैं शिक्षक बागवान है हम फूल चमन के शिक्षकों को शत शत प्रणाम करते हैं अनिता मंदिलवार "सपना" (व्याख्याता ) अंबिकापुर सरगुजा छतीसगढ़

कुण्डलिया

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🙏 *कुण्डलिया की कुण्डलियाँ।*🙏 ******************************* *कुंडलिया लिख लें सभी, रख कुछ बातें ध्यान।* *दोहा रोला जोड़ दें, इसका यही विधान।* *इसका यही विधान,आदि ही अंतिम आये।* *उत्तम रखें तुकांत, हृदय को अति हरषाये।* *कहे 'अमित' कविराज, प्रथम दृष्टा यह हुलिया।* *शब्द चयन है सार, शिल्प अनुपम कुंडलिया।* *रोला दोहा मिल बनें, कुण्डलिया आनंद।* *रखिये मात्राभार सम, ग्यारह तेरह बंद।* *ग्यारह तेरह बंद, अंत में गुरु ही आये।* *अति मनभावन शिल्प, शब्द संयोजन भाये।* *कहे 'अमित' कविराज, छंद यह मनहर भोला।* *कुण्डलियाँ का सार, एक दोहा अरु रोला।* ******************************* ✍ *कन्हैया साहू 'अमित'*✍ © भाटापारा छत्तीसगढ़ ®
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*विधवा का शव*              18 मार्च को कल्पना सुबह प्रातः कालीन भ्रमण के लिए जा रही थी कि अचानक इंदिरा सोसाइटी के बाहर एक श्वेत वस्त्र धारी महिला को औंधे मुँह पड़े हुए देखा और उस महिला के निकट जाकर कल्पना ने उसे हिलाया-डुलाया तो वह महिला निश्चेष्ट मृत समान प्रतीत हुई। तब कल्पना ने कुछ घबराहट भरी आवाज में विधवा का शव... विधवा का शव... इंगित करते हुए वहाँ से गुजरने वाले लोगों का ध्यान इस महिला की तरफ खींचा। धीरे-धीरे भीड़ एकत्रित हो गई, जिनमें से कुछ व्यक्ति उनके परिचित भी निकले जिन्होने बताया कि ये तो सुषमा जी हैं जिनके पति रामपाल 30 वर्ष पहले कार दुर्घटना में चल बसे थे और इकलौते पुत्र मयंक गत 35 वर्षों से विदेश में रहते हैं, अरबों की संपत्ति की मालकिन होते हुए भी सुषमा यहाँ अकेली ही रहती थी। इन्ही चर्चाओं के मध्य एकत्रित भीड़ में से किसी ने एम्बुलेंस को फोन कर दिया था तो किसी ने पुलिस को, दोनों ही 2 मिनट के अंतराल पर इंदिरा सोसाइटी के बाहर पहुँच गए और सुषमा जी के पार्थिव शरीर को ले गए।              अब कल्पना भी प्रातः कालीन भ्रमण के लिए न जाकर वापिस अपने घर आ गई। और सुन्न अवस्था मे

मुक्तक

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*मुक्तक                                           अनिता मंदिलवार सपना  किनारे सागर के कभी डूबा नहीं करते । गुजर जाता है वक्त, कदम थमा नहीं करते ।। रहकर खुश, बाँटो खुशियाँ, हँसते रहो हरदम । किसी की परेशानियों पर, हँसा नहीं करते ।। क्यों करते चिड़ियों सा, तुम कैद पिंजरे में । ख़्वाब दिल में ही रहें, क्यों फँसते खतरे में ।। पाबंदी न लगाओ, मुहब्बत में अब सपना । अपना जान क्यों देते, अक्सर वो सदमें में ।। अनिता मंदिलवार सपना अंबिकापुर सरगुजा छतीसगढ़
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संजय कौशिक 'विज्ञात' जी का बहुत पसंद किया जाने वाला गीत व्यंजना कितनी समेटूं पृष्ठों पर मनमीत मेरे देख अक्षर मौन हैं अब शांत हैं सब भाव मेरे मंद है बेशक कलम पर जानती है घाव मेरे इस हवा से जब छिपाये रक्त रंजित स्राव मेरे सागरों की उर्मियों में भी बसे अब गीत मेरे व्यंजना कितनी समेटूं पृष्ठों पर मनमीत मेरे हो सके तो छोड़ दे तू इस कलम से खेलना फिर मुक्त अभिव्यक्ति लिखेगी तो सहज हो झेलना फिर बन्द करना ये पड़ेगा तू करे अवहेलना फिर दाव पर मैं स्वप्न मेरे हारते तब जीत मेरे व्यंजना कितनी समेटूं पृष्ठों पर मनमीत मेरे बादलों ने पीर गाई घाटियाँ गुंजित हुई तब लेखनी की वेदना से वेदना कंपित हुई तब बिम्ब बनते कथ्य के बिन बात वो लंबित हुई तब आज तक अटकी हुई जो भाग्य की वो रीत मेरे व्यंजना कितनी समेटूं पृष्ठों पर मनमीत मेरे संजय कौशिक 'विज्ञात'