नवगीत
नवगीत आ बैठे उस पगडण्डी पर जिससे जीवन शुरू हुआ था स्मृति अंतः पटल खड़ी थी जब आवरणों का शोर हुआ था। मन व्याकुलता के घेरे में, हृदय त्रास का जोर हुआ था। गिरा चुका था पंख सभी वो शोषित नृप सा मोर हुआ था लांघ न पाया जो मर्यादा बनता ये मन मेरू हुआ था आ बैठे उस पगडण्डी पर जिससे जीवन शुरू हुआ था वह सूर्य सप्त अश्व सुसज्जित बढ़े प्रतिज्ञा बद्ध निरन्तर ऊर्जा लेकर जब हम चलते शेष रहा मध्य बड़ा अंतर सहनशील सहिष्णु तम पाचक शांत स्वभाव क्रोध का सन्तर नयन क्रोध रक्तिम आभा से दुल्हन के तन गेरू हुआ था आ बैठे उस पगडण्डी पर जिससे जीवन शुरू हुआ था नीति ध्वस्त आडम्बर कलुषित कुंदन शोभा मंद पड़ी थी। लाल मिला फिर रेत भाव में द्वार जौहरी पंक्ति खड़ी थी। अंतः विचलित हो ही जाता उससे भी ये नीच घड़ी थी। शुद्ध अशुद्ध खरा या खोटा सच को देख पखेरू हुआ था आ बैठे उस पगडण्डी पर जिससे जीवन शुरू हुआ था आवश्यकता मातपिता से एक समय पूरी होती थी बाल पराश्रित जीवन सबका संचय से दूरी होती थी पर गुल्लक कच्ची मिट्टी की फोड़ें मजबूरी होती थी पाप स्वप्न ये देख वृद्ध के कभी मोती बखेरू हुआ था ...
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