शजर-ए-तन्हा से एक गज़ल
तूफान से डर क्या है निकलिए तो घरों से
कुछ तुन्द हवाओं के तकाजे हैं परों से
किस बात का खदशा इन्हें किस बात का डर है
क्यों लोग निकलते ही नहीं आज घरों से
हर आईने में टूटे हुए चेहरे मिलेंगे
उम्मीद नहीं कुछ भी हमें शीशागरो से
वैसे तो पहाड़ों की बुलंदी पे है बस्ती
परवाज तो कर काम तो ले अपने परों से
कितने ही कदम आयेंगे और साथ चलेंगे
इक बार बस इक बार निकलिए तो घरों से
हिम्मत नयी मिल जाती है उस वक़्त सभी को
शैली जो गुजरने ही लगे पानी सरों से
आशा शैली
तूफान से डर क्या है निकलिए तो घरों से
कुछ तुन्द हवाओं के तकाजे हैं परों से
किस बात का खदशा इन्हें किस बात का डर है
क्यों लोग निकलते ही नहीं आज घरों से
हर आईने में टूटे हुए चेहरे मिलेंगे
उम्मीद नहीं कुछ भी हमें शीशागरो से
वैसे तो पहाड़ों की बुलंदी पे है बस्ती
परवाज तो कर काम तो ले अपने परों से
कितने ही कदम आयेंगे और साथ चलेंगे
इक बार बस इक बार निकलिए तो घरों से
हिम्मत नयी मिल जाती है उस वक़्त सभी को
शैली जो गुजरने ही लगे पानी सरों से
आशा शैली
Comments
Post a Comment